- मोदी जी…साम्प्रदायिकता पर अंकुश लगाने के लिये दखल दें-जूलियो रिबैरो (Julio Ribeiro,former DGP Punjab)
‘क्राई, द बिलवेड कंट्री’ Julio Ribeiro-यह दक्षिण अफ्रीकी उपन्यासकार ऐलन पैटन के लिखे उपन्यास का शीर्षक था जो 1948 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक की विषयवस्तु रंगभेद की बुराइयां थीं जिस ने विश्व भर में युवा विश्वविद्यालय विद्यार्थियों पर अमिट छाप छोड़ी। हमारे प्रिय देश में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ पैदा की जा रही विक्षिप्त साम्प्रदायिक नफ़रत की बुराई को लेकर भी हमारे मन में वैसी ही भावना पैदा होनी चाहिये जैसी पैटन के उपन्यास द्वारा पैदा की गई थी। सभ्य देशों में अल्पसंख्यकों के साथ सरकारों द्वारा बहुत नर्मी के साथ व्यवहार किया जाता है जो मुख्य रूप से बहुसंख्यकों द्वारा बनाई जाती हैं।
रोमानिया, जहाँ मैंने अपने देश के राजदूत के रूप में 4 साल बिताये, में कुल जनसंख्या के 8% हंगेरियन अल्पसंख्यक हंगरी की सीमा के साथ लगते ट्रांसिल्वेनियन क्षेत्र में रहते थे। वे रोमानिया के 40 ज़िलों में से 4 में बसते थे। आपस में हंगेरियन भाषा में बात करते थे तथा एक अलग तरह के इसाई धर्म ‘काल्विनिस्ट’ का पालन करते थे। जबकि बहुसंख्यक रोमानियन आर्थोडाक्स मत का पालन करते थे। इस 8 प्रतिशत अल्पसंख्यक समुदाय ने माँग की कि प्रशासन की भाषा तथा अदालतों की कार्यवाही हंगेरियन भाषा में होनी चाहिये। उनकी माँग को काफ़ी हद तक मान लिया गया। इस अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधियों को बुखारेस्ट में राजनीतिक तथा नौकरशाही के पदों पर बिठाया गया।
ब्रिटेन के शहरों में बड़ी संख्या में हिन्दू मंदिर, इस्लामिक मस्जिदें तथा सिख गुरुद्वारे हैं। मूल ब्रितानियों के साथ अपनी बातचीत के दौरान मैंने कभी भी ‘अजान’ के खिलाफ शिकायत नहीं सुनी, केवल ‘हिजाब’ को लेकर कानून के अनुसार खुले समाज में इसके उद्देश्य को लेकर हैरानी जताई जाती है। अमरीका में भी जहां हमारे बहुत से देशबंधु स्थायी रूप से बसे हुए हैं, धर्मों, भाषाओं, पहरावों, खान-पान की आदतों आदि को स्वाभाविक तौर पर स्वीकार कर लिया जाता है। हिन्दू, मुसलमानों, सिखों तथा ईसाइयों को बराबर के अधिकारों और निश्चित तौर पर जिम्मेदारियों के साथ नागरिकों के तौर पर स्वीकार किया गया है।
हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोदी जी को ब्रिटेन तथा अमरीका में बसे भारतीयों के बीच बहुत लोकप्रियता प्राप्त है। जब भी वह वहां जाते हैं तो वे उनसे मिलने के लिए उमड़ पड़ते हैं जो कोविड के हमले तक काफी नियमित रूप से होता रहा। उन्होंने अवश्य उन्हें अपनी राष्ट्रीयता बदलने तथा अपने जीवन की गुणवत्ता में सुधार के बारे में जानकारी दी होगी। इसके अतिरिक्त मोदी जी ने अवश्य ध्यान दिया होगा कि 3 हिन्दू, जिन में से एक गुजरात से है और बोरिस जॉनसन के मन्त्रालय ने शीर्ष स्थान पर है तथा एक है अमरीकी उपराष्ट्रपति और अमरीकी सर्जन, जनरल भी हिन्दू हैं।
ये तथ्य मोदी जी को साधुओं और संतों के साथ सांझे करने चाहिएं जो मुसलमानों को बर्बाद करने तथा ईसाइयों के लिए ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रमों की वकालत करते हैं। यही समय है कि मोदी जी बोलें और अपने कट्टर समर्थकों को संबोधित करें जो उनके मुंह से निकले प्रत्येक शब्द का अक्षरश: पालन करते हैं। वे शब्द उन्हें चुनाव जीतने में मदद करते हैं। वे क्यों उनका इस्तेमाल नफरत तथा विभाजन को रोकने के लिए नहीं करते जो आज सारे देश में फैला हुआ है?
यदि वे साम्प्रदायिकता के कड़ाहे को उबलते रखने के लिए आडम्बरपूर्ण योजना को रोकने के लिए दखल नहीं देंगे तो हमारे देश को इसके दीर्घकालिक परिणाम भुगतने पड़ेंगे। शुरूआत करने के लिए उन्हें अपने कार्यकर्ताओं को खुली तलवारों के साथ मुस्लिम इलाकों के बीच से ज़लूस निकालने तथा उकसाहटपूर्ण नारे लगाने पर रोक लगानी चाहिये, जैसा कि पहले कभी नहीं किया गया। दरअसल जहाँ तक मेरी जानकारी है रामनवमी और हनुमान जयन्ती के ज़लूस पहले आयोजित नहीं किये जाते थे। ऐसा लगता है कि इनकी योजना अल्पसंख्यक समुदाय को आतंकित करने और झगड़ा पैदा करने के लिये जानबूझ कर बनायी गयी।
शासन ऐसे उकसाहटपूर्ण कार्यों से क्या हासिल करने की आशा करता है? इनमें से चुनावी लाभ एक है। मगर क्या उत्तर प्रदेश लिचिंग तथा लव जेहादों से जीता गया? क्या आंकड़ों की समीक्षा की गई? बीजेपी के उच्च जातियों वाले कट्टर निर्वाचन क्षेत्रों को अपनी पार्टी के लिये वोट डालने के लिये इस तरह की उत्तेजनाओं की ज़रूरत नहीं है। OBC जिनके वोट विजय के लिये महत्वपूर्ण थे, उन्हें अपराधियों’ के विरुद्ध सड़कों पर कार्यवाही करके तथा बुरे समय के दौरान 6 महीनों के लिये फ्री राशन देकर लुभाया गया। क्या अस्थायी फ़ायदों के लिये देश में विघटन पैदा करना समझदारी की बात है?
बीजेपी का पक्ष में खड़े होने वाले यह आभास पैदा करेंगे कि जैसे अल्पसंख्यक समुदाय ही आक्रामक था। ऐसा होना दुर्लभ है जो पागलपन तथा निराशा के बीच से जन्म लेता है। किसी भी दंगे में अल्पसंख्यकों की हालत सब से ख़राब होनी निश्चित है। उनके विरुद्ध आंकड़े डराने वाले हैं। निश्चित तौर पर वे कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जो उन्हें आत्महत्या करने की तरफ़ ले जाती हो। मेरे खुद के अनुभव में पहले महाराष्ट्र और फ़िर गुजरात में अल्पसंख्यक समुदाय हमेशा अपने क्षेत्रों में अपना बचाव करने के लिये तैयार रहते थे। वे कभी भी दूसरों के क्षेत्रों में हस्तक्षेप नहीं देते थे क्योंकि ऐसा उनके लिए पागलपन होता।
अच्छे वक़्त में पुलिस अपराधियों को क़ाबू कर लेती थी। यह एक समय पर परखी गई प्रक्रिया थी जो काफ़ी हद तक काम करती थी। लेकिन अब वक़्त बदल चुका है। पुलिस अब सत्ताधीन राजनीतिक अधिष्ठान के आदेशों का पालन करती है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, गोवा, छत्तीसगढ़, गुजरात और दिल्ली सहित देश के कई राज्यों में रामनवमी तथा हनुमान जयन्ती मनाने के लिये जलूस निकालने का असामान्य निर्णय एक ऐसी प्रक्रिया का ख़ुलासा करता है जिसकी केन्द्रीय तौर पर योजना बनानी पड़ती है।
क्यों पुलिस को इस बारे जानकारी नहीं थी? क्यों उन्हें चुने हुए रूटों के लिए स्वीकृति दी गई। कैसे तथा क्यों जलूस में शामिल लोग नंगी तलवारें तथा लाठियों जैसे अन्य हथियार लिए हुए थे? कैसे रक्षात्मक लोग जानते थे कि उनकी मस्जिदें हमले का निशाना बनेंगी? इन सभी प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देने की जरूरत है। मुसलमानों, जिन में से कई ग़रीब थे, की दुकानें तथा घर गिराने के लिये बुल्डोज़रों का इस्तेमाल एक सभ्य समाज की दयनीय तस्वीर पेश करता है।
क़ानून के मुताबिक़ ज़रूरी नोटिस भी नहीं दिये गये। जब जब कार्यवाही की अवैधता पर प्रश्र उठाया गया है तो पुलिस ने तुरन्त अपना ट्रैक बदलते हुए कह दिया कि “इसका इस्तेमाल अवैध निर्माणों के ख़िलाफ़ किया गया, जो एक बाद वाला विचार था। कहाँ और कब यह सारा नाटक तथा यह अन्याय समाप्त होंगे? निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट्स कर सकती हैं और दख़ल देंगी। (Julio Ribeiro,former DGP Punjab)
लेखक- जूलियो रिबैरो (पूर्व DGP पंजाब और पूर्व IPS अधिकारी हैं)